मुझे पता है...ख़बर थी
तुझसे मिलना ही खुशियों की सहर थी
मुश्किल था तुझे पाना
फिर भी ताउम्र तेरी चाहत रही
कुछ कहने लगे
थे की हूँ
मैं अंधाफिर भी ताउम्र तेरी चाहत रही
या फिर एक बावला बन्दा
ढूंढता रहा चंदा अमावस की रात में
इसे मोहब्बत कहे या नादानी
ग़र कहो मोहब्बत,तो मोहब्बत ही सही
अब तक है आस तो नादानी भी नहीं
तब भी तू थी वहीँ,और अब भी है वहीँ
मुझे पता है...खबर थी
बिन तेरे न हो पाएगी कभी ये फिर हरी
जाना था तो चली जाती
पर चन्द अलफ़ाज़ सुन जाती
दिल की बात ज़ुबा तक न आ सकी
अब है यही आरज़ू ,तू सुन ले वो अनकही
ग़र तू थी सही ,तो मै भी था ग़लत नहीं
मुझे पता है...ख़बर थी